KEDARNATH TRAGEDY


कितना कुछ मैंने देखा

क्या क्या मैंने झेला

कैसे बयां करूं वो काली बेला

अब क्या इस धरा पर है रखा

उस दिन समा था कुछ अलग

रो रो कर बिखर रहा था हर कण

गरजते मेघ रुके ना किसी के लिए एक क्षण

देखी मैंने खड़े खड़े बर्बादी की वो झलक

हर तरफ लोग डूब रहे थे

कुछ चीख पुकार रहे थे

मगर सब जाकर समा रहे थे

उस खौफनाक काले ताल में

मैंने दिल से पुकार लगाई

उस अल्लाह के दरबार में

ना जाने क्यों मेरी आवाज़ कुछ न कर पाई

उस जल प्रलय के खौफ में

क्यूं था मैं केवल वृक्ष एक जो

ना कुछ बोल सका

ना रो कर अपना दर्द दिखा सका

काश मैं होता मानव तो बचा लेता हर एक को

मुझे एक डूबते बालक ने पकड़ा

हाथ अपना उसने जोर से जकड़ा

किया उसने बचने का हर एक प्रयास

काश वो बच जाता यही थी मेरी आस

मगर भगवान को कुछ और ही मंजूर था

छूट गया उसका हाथ

मेरे भी कई साथी छोड़ कर चले गए

स्वर्ग सी इस देवभूमि को

नाजाने क्यूं मेरे जैसे कुछ रह गए

झेलने के लिए इस दर्द भरे सैलाब को

जाने कितने चले गए उस अंधेरी रात में

मां बाप बच्चे छूट गए उन पहाड़ों की तंग राहों में

रोते बिलखते छूट गए अपने

चकना चूर हो गए वो चार धाम के सपने

जाने कितने दिन बीत गए

उस अंधेरी रात को

घर बार सुख सब छूट गए

कैसे बताऊं पहाड के दर्द को

जाने कब घर बसेंगे

क्या बुझे दीपक फिर जलेंगे

अब कैसे ये जख्म भरेंगे

 पर अब भी आस है

अपने बिछड़े जरूर मिलेंगे ।

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